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कविता

तरकीब

सर्वेंद्र विक्रम


चाय में बिस्कुट डुबाकर खाते हुए उसने धीमी आवाज में कहा
विश्वास मत करो मुझ पर, देखो

यह उसके तटस्थ होने का दिखावा भर था या कुछ और,
साफ नहीं था इसकी परीक्षा होनी बाकी थी

चाहता तो कोई और भी तरीका इस्तेमाल कर सकता था
हो सकता है धीमी आवाज में इसलिए भी कहा हो
कि लोगों की उत्सुकता बनी रहे

उसने कई तरह के बदलाव किए इतनी क्षिप्र गति से
कि एक निरंतरता पैदा हो जाती
और हर नई छवि पुरानी को अपदस्थ कर देती
स्मृति में नहीं रह जाता था कोई अवशेष
पिछले साल महीने हफ्ते तो दूर पिछला दिन नहीं
पिछले क्षण के बारे में भी विश्वासपूर्वक कुछ कह पाना कठिन था

यह सब शायद किसी तरकीब की तरह था

एक दिन आँखों में शून्य भर बोलने लगा बिना रुके
दिखाने लगा एक ही चीज बार बार

तिलस्म में लपेट कर प्रस्तुत की गई खास छवियों ने
भर दिया लोगों में उन्माद
कलाकर्म जैसी वैधता प्रदान की गई सामूहिक घृणा को
जिम्मेदार लोग हस्तक्षेप की बजाय मुड़ गए प्रार्थनाओं की ओर
गहरी उदासी को क्रमशः ढक लिया उदासीनता ने


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